तुम रूह की बात किये जाओ
औ मैं ज़िक्र सितारों का
गो ये एक अच्छी नज़्म का मज़मूं है
इक अच्छी बज़्म में यारों का
(वो नज़्म)
जिसे कोरे कागज़ पर बिखरा
जिसे जज़्बएे तरन्नुम से निखरा
किसी महफिल में गाकर घर आ
मुंह दिखना यूँ लटका लटका
हक ना- हक की वो दीवारों का
फिर भी जहाँ तक हो सकें
तुम रूह की बात किये जाओ....
.
क्यूँकि .....
इक उम्र से बहता एक दरिया
मितवा है जब सागर को आ
वाँ फिक्र औ जिक्र नहीं रहता
नहीं रहता कुछ भी किनारों का ......
जब ......
खुद अपनी बेटी काँधे उठा
ले जाता गावों दूर के जा
गले गले रुंधा रुंधा
क्या होगा गीत कहारों का
फिर तुम क्यूँ नहीं ...?
रूह की बात किये जाओ
और इसलिए भी ...
कुछ अजब सा हमने है देखा i
देखा है हश्र बहारों का
कि पत्ता पत्ता गिरता गिरता
भी करता सजदा है नज़ारों का ......
इसलिए तुम क्यूँ नहीं ......
रूह की बात किये जाओ
औ मैं ज़िक्र सितारों का
गो ये इक अच्छी नज्म का मज़मू है
इक अच्छी बज़्म में यारों का .....!!!
-साभार, पीयू
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